भारतीय संविधान व्यवस्था की सफलता मात्र केंद्र तथा राज्यों के सौहार्दपूर्ण संबंधों तथा घनिष्ठ सहभागिता पर नहीं अपितु राज्यों के अंतर्संबंधों पर भी निर्भर करती हैं| अत: संविधान ने अंतर्राज्यीय सौहार्द के संबंधों में निम्न प्रावधान किए हैं|
- अंतर्राज्यीय जल विवादों का न्याय-निर्णयन
- अंतर्राज्यीय परिषद् द्वारा समन्वयता
- सार्वजनिक कानूनों, दस्तावेजों तथा न्यायिक प्रक्रियाओं को पारस्परिक मान्यता
- अंतर्राज्यीय व्यापार, वाणिज्य तथा समागम की स्वतंत्रता
इसके अतिरिक्त संसद द्वारा अंतर्राज्यीय सहभागिता तथा समन्वयता बढ़ाने के लिए क्षेत्रीय परिषदों का गठन किया गया हैं|
अंतर्राज्यीय जल विवाद
संविधान का अनुच्छेद 262 अंतर्राज्यीय जल विवादों के न्यायनिर्णयन से संबंधित हैं|
- संसद कानून बनाकर अंतर्राज्यीय नदियों तथा नदी घाटियों के जल के प्रयोग, बंटवारे तथा नियंत्रण से संबंधित किसी विवाद पर शिकायत का न्यायनिर्णय कर सकती हैं|
- संसद यह भी व्यवस्था कर सकती है की ऐसे किसी विवाद में न ही उच्चतम न्यायालय तथा न ही कोई अन्य न्यायालय अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करे|
इस प्रावधान के अधीन संसद ने दो कानून बनाए| [नदी बोर्ड अधिनियम (1956) तथा अंतर्राज्यीय जल विवाद अधिनियम (1956)] नदी बोर्ड अधिनियम, अंतर्राज्यीय नदियों तथा नदी घाटियों के नियंत्रण तथा विकास के लिए नदी बोर्डों की स्थापना हेतु बनाया गया| नदी बोर्ड की स्थापना संबंधित राज्यों के निवेदन पर केंद्र सरकार द्वारा उन्हें सलाह देने हेतु की जाती हैं|
अंतर्राज्यीय जल विवाद अधिनियम, केंद्र सरकार को अंतर्राज्यीय नदी अथवा नदी घाटी के जल के संबंध में दो अथवा अधिक राज्यों के मध्य विवाद के न्यायनिर्णयन हेतु ek अस्थायी न्यायालय की गठन की शक्ति प्रदान करता हैं| न्यायाधिकरण का निर्णय अंतिम तथा विवाद से संबंधित सभी पक्षों के लिए मान्य होता हैं| कोई जल विवाद जो इस अधिनियम के अंतर्गत ऐसे किसी न्यायधिकरण के अधीन हो, उच्चतम न्यायालय तथा किसी दूसरे न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से बाहर होता हैं|
अंतर्राज्यीय जल विवाद के निपटारे के लिए अतिरिक्त न्यायिक तंत्र की आवश्यकता इस प्रकार हैं-
क्र | नदियों के नाम | स्थापना वर्ष | संबंधित राज्य |
1. | कृष्णा जल विवाद न्यायाधिकरण | 1969 | महाराष्ट्र, कर्नाटक एवं आंध्र प्रदेश |
2. | गोदावरी जल विवाद न्यायाधिकरण | 1969 | महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं ओडिशा |
3. | नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण | 1969 | राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश एवं महाराष्ट्र |
4. | रावी तथा व्यास जल विवाद न्यायाधिकरण | 1986 | पंजाब, हरियाणा एवं राजस्थान |
5. | कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण | 1990 | कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु एवं पुडुचेरी |
6. | द्वितीय कृष्णा जल विवाद न्यायाधिकरण | 2004 | महाराष्ट्र, कर्नाटक एवं आंध्र प्रदेश |
7. | वंशधारा जल विवाद न्यायाधिकरण | 2010 | ओडिशा एवं आंध्र प्रदेश |
8. | महादायी जल विवाद न्यायाधिकरण | 2010 | गोवा, कर्नाटक एवं महाराष्ट्र |
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“यदि जल विवादों से विधिक अधिकार या हित जुड़े हुए है तो उच्चतम न्यायालय को यह अधिकार है की वह राज्यों के मध्य जल विवादों की स्थिति में उनसे जुड़े मामलों की सुनवाई कर सकता हैं| लेकिन इस संबंध में विश्व के विभिन्न देशों में यह अनुभव किया गया हैं की जब जल विवादों में निजी हित सामने आ जाते हैं तो मुद्दे का संतोषजनक समाधान नहीं हो पता है|” अब तक (2016) केंद्र सरकार आठ अंतर्राज्यीय जल विवाद न्यायाधिकरणों का गठन कर चुकी हैं|
अंतर्राज्यीय परिषदें
अनुच्छेद 263 राज्यों के मध्य तथा केंद्र राज्यों के मध्य समन्वय के लिए अंतर्राज्यीय परिषद् के गठन की व्यवस्था करता हैं| इस प्रकार, राष्ट्रपति यदि किसी समय यह महसूस करे की ऐसी परिषद् का गठन सार्वजनिक हित में है तो वह ऐसी परिषद का गठन करता हैं| राष्ट्रपति ऐसी परिषद् के कर्तव्यों, इसके संगठन और प्रक्रिया को परिभाषित (निर्धारित) कर सकता हैं|
यद्यपि राष्ट्रपति को अंतर्राज्यीय परिषद् के कर्तव्यों के निर्धारण की शक्ति प्राप्त है तथापि अनुच्छेद 263 निम्नानुसार इसके कर्तव्यों का उल्लेख करता हैं|
अ) राज्यों के मध्य उत्पन्न विवादों की जांच करना तथा ऐसे विवादों पर सलाह देना|
ब) उन विषयों पर, जिनमें राज्यों अथवा केंद्र तथा राज्यों का समान हित हो, अन्वेषण तथा विचार-विमर्श करना|
स) ऐसे विषयों तथा विशेष तौर पर नीति तथा इसके क्रियान्वयन में बेहतर समन्वय के लिए संस्तुति करना|
परिषद् के अंतर्राज्यीय विवादों पर जांच करने तथा सलाह देने के कार्य उच्चतम न्यायालय के अनुच्छेद(131) के अंतर्गत सरकारों के मध्य क़ानूनी विवादों के निर्णय के अधिकार क्षेत्र के सम्पूरक हैं| परिषद् किसी विवाद , चाहे कानून अथवा गैर-क़ानूनी का निष्पादन कर सकती हैं, किंतु इसका कार्य सलाहकारी हैं न की न्यायालय की तरह अनिवार्य रूप से मान्य निर्णय|
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