सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलन का उन्नीसवीं शताब्दी के भारत के आधुनिक इतिहास में विशेष स्थान हैं| इन आंदोलनों ने बुद्धिजीवियों और माध्यम वर्ग को सर्वाधिक प्रभावित किया| निर्धन सर्वसाधारण वर्ग इन आंदोलनों से लगभग अप्रभावित ही रहा| बुद्धिजीवी, नगरीय, उच्च जातियों एवं उदार राजवाड़े इन आंदोलनों से प्रभावित थे|
19वीं शताब्दी में सामाजिक स्थिति
19वीं शताब्दी में भारतीय समाज धार्मिक अंधविश्वासों एवं सामाजिक कुरीतियों से जकड़ा हुआ था, हिंदू समाज बुराइयों एवं अंधविश्वासों से ओतप्रोत था| पुरोहित, समाज में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाये हुए थे तथा जनसामान्य पर विभिन्न कर्मकांडों तथा निरर्थक धार्मिक कृत्यों की सहायता से वर्चस्व स्थापित कर चुके थे|
19वीं शताब्दी में महिलाओं की स्थिति
भारतीय सामाजिक व्यवस्था भी इतनी दयनीय थी| समाज में सबसे निम्न स्थिति स्त्रियों की थी| बालिका का जन्म अपशगुन, उसका विवाह बोझ एवं वैधताय श्राप समझा जाता था, जन्म के पश्चात् बालिकाओं की हत्या कर दी जाती थी, बाल विवाह समाज की एक अन्य कुरीति थी|
इस काल में बहुविवाह की प्रथा समाज में व्याप्त थी और बंगाल में कुलिनवाद के अंतर्गत, यहां तक की वृद्ध व्यक्ति बेहद काम उम्र की बालिकाओं से विवाह करता था| स्त्रियों का वैवाहिक जीवन अत्यंत दयनीय एवं संघर्षपूर्ण था| यदि किसी स्त्री के पति की मृत्यु हो जाती थी(यहां तक की ऊंची जातियों में भी) तो उसे बलपूर्वक पति की चिता में जलने को बाध्य किया जाता था|
इसे ‘सती प्रथा’ के नाम से जाना जाता था, राजा राममोहन राय ने इसे ‘शास्त्र की आड़ में हत्या’ की संज्ञा दी| सौभाग्यवश यदि कोई स्त्री इस क्रूर प्रथा से बच जाती थी तो उसे शेष जीवन अपमान, तिरस्कार, उत्पीड़न एवं दुःख में बिताने पर बाध्य होना पड़ता था|
19वीं शताब्दी में जातिगत भेदभाव की समस्या
इस काल में जाति प्रथा की एक महत्वपूर्ण बुराई थी, वर्ण या जाति का निर्धारण वैदिक कर्मकाण्डों के आधार पर होता था| इस जाति व्यवस्था की सबसे निचली सीढ़ी पर अनुसूचित जाति(शूद्र) के लोग थे, जिन्हें समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता था तथा अछूत माना जाता था| इन अछूतों या अस्पृश्यों की संख्या पूरी हिन्दू जनसँख्या का 20 प्रतिशत से भी अधिक थी अस्पृश्य, भेदभाव एवं अनेक प्रतिबंधों के शिकार थे|
इस व्यवस्था ने समाज को कई वर्गों या समूहों में विभक्त कर दिया आगे चलकर यह व्यवस्था राष्ट्रीय एकीकरण एवं विकास में महत्वपूर्ण बाधा सिद्ध हुई|
पाश्चात्य संस्कृति का विरोध
भारत में उपनिवेशी शासन की स्थापना के पश्चात् देश में अंग्रेजी सभ्यता एवं संस्कृति प्रसार हेतु सुनियोजित प्रयास किये गए, शहरीकरण तथा आधुनिकीकरण ने भी लोगो के विचारों को प्रभावित किया| इन नवीन विचारों के विक्षोभ ने भारतीय संस्कृति में प्रसार की भावना उत्पन्न की तथा ज्ञान का प्रसार हुआ|
सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलन
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राजा राममोहन राय
राजा राममोहन राय प्रथम भारतीय थे, जिन्होंने सबसे पहले भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों के विरोध में आंदोलन चलाया| उनके नवीन विचारों के कारण ही 19वीं शताब्दी के भारत में पुनर्जागरण का उदय हुआ| राजा राममोहन राय को ‘भारतीय पुनर्जागरण का पिता’ , ‘भारतीय राष्ट्रवाद का पैगंबर’, ‘अतीत और भविष्य के मध्य सेतु’, भारतीय राष्ट्रवाद का जनक’, ‘आधुनिक भारत का पिता’, ‘प्रथम आधुनिक पुरुष’, तथा ‘युगदूत’ कहा गया|
1815 ई में हिंदू धर्म के एकेश्वरवादी मत का प्रचार करने के लिए राजा राममोहन राय ने अपने युवा समर्थकों के सहयोग से ‘आत्मीय सभा’ की स्थापना की| 1828 ई में राममोहन राय ने ‘ब्रह्म सभा’ के नाम से एक नए समाज की स्थापना की, जिसे आगे चलकर ‘ब्रह्म समाज’ के नाम से जाना गया| देवेंद्रनाथ टैगोर ने राजा राममोहन राय के विचारों के प्रसार के लिए 1839 ई में ‘तत्वबोधिनी सभा’ की स्थापना की| हिंदू धर्म का पहला सुधार आंदोलन ‘ब्रह्म समाज’ था, जिस पर आधुनिक पाश्चात्य विचारधारा का बहुत प्रभाव पड़ा था| मुग़ल बादशाह अकबर द्वितीय ने राममोहन राय को ‘राजा’ की उपाधि के साथ अपने दूत के रूप में 1830 ई में तत्कालीन ब्रिटिश सम्राट विलियम चतुर्थ के दरबार में भेजा था|
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